Bodoland Movement
हम कुछ भी कहने से पहले यह बताना चाहते हैं कि इस डॉक्यूमेंट्री में प्रस्तुत किए गए सभी तथ्य, वीडियो, आर्टिकल्स, और न्यूज़ स्रोतों से लिए गए हैं। हमारी ओर से कुछ भी कल्पना से नहीं कहा जा रहा है। साथ ही, बोडो समुदाय खुद को बोरो कहता है, हालांकि कई जगह आर्टिकल्स और न्यूज़ में इसे बोडो के नाम से पुकारा गया है। इसलिए, सावधानी बरतते हुए, हम इसे बोडोलैंड मूवमेंट कहेंगे। इस डॉक्यूमेंट्री के विवरण में आपको कई लिंक मिल जाएंगे, जिनके माध्यम से आप सभी तथ्यों की पुष्टि कर सकते हैं।
तो आइए, इस ऐतिहासिक संघर्ष को समझने के लिए हम शुरुआत करते हैं Innercallके साथ।
असम के प्राकृतिक सौंदर्य के बीच एक संघर्ष की गाथा छिपी है। यह बोडो समुदाय की पहचान और स्वायत्तता की लड़ाई की कहानी है, जिसने दशकों से राज्य और राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित किया है।
यह यात्रा तब शुरू हुई जब 1929 में बोडो युवाओं ने साइमन कमीशन के सामने अपनी पहचान और अधिकारों की मांग उठाई। गुरुदेव कालीचरण ब्रह्मा ने एक ज्ञापन प्रस्तुत किया जिसमें बोडो लोगों के लिए अलग चुनाव क्षेत्र और राज्य और केंद्र सरकार में उनके लिए आरक्षण की मांग की गई थी।
बोडो नेताओं ने 14 जनवरी 1929 को शिलॉन्ग में साइमन कमीशन के सामने ज्ञापन प्रस्तुत किया।
बोडो समुदाय ने अपनी सांस्कृतिक पहचान को बचाने के लिए कदम उठाए।1952 में बोडो साहित्य सभा की स्थापना की गई। इस संगठन का मुख्य उद्देश्य बोडो भाषा को संरक्षित करना और उसे शिक्षा प्रणाली में लागू करवाना था।”
16 नवंबर 1952 को बोडो साहित्य सभा का गठन हुआ, जिसने भाषा और सांस्कृतिक पहचान की लड़ाई शुरू की।
1967 में प्लेन ट्राइबल्स काउंसिल ऑफ असम (PTCA) का गठन हुआ। इसके गठन का उद्देश्य असम के आदिवासी क्षेत्रों के लिए स्वायत्तता की मांग को जोरशोर से उठाना था। PTCA के नेताओं ने यह महसूस किया कि राज्य के भीतर आदिवासियों के अधिकार सुरक्षित नहीं हैं।
PTCA ने 20 मई 1967 को राष्ट्रपति डॉ. ज़ाकिर हुसैन के सामने स्वायत्त क्षेत्र की मांग प्रस्तुत की।
उसी वर्ष, 1967 में, ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन (ABSU) का गठन हुआ। यह संगठन बोडो युवाओं के लिए एक मंच बना, जिससे उन्होंने न केवल सांस्कृतिक बल्कि राजनीतिक मुद्दों पर भी अपनी आवाज उठाई।
15 फरवरी 1967 को ABSU का गठन हुआ, जिससे आंदोलन को और तेज गति मिली
1979 से 1985 तक असम आंदोलन ने राज्य को हिलाकर रख दिया। बोडो लोगों ने बाहरी लोगों के आगमन और उनकी पहचान पर खतरे को देखते हुए, अपनी मांगों को और मजबूत किया। उन्होंने महसूस किया कि असम आंदोलन ने केवल असमिया बहुसंख्यकों की मांगों पर ध्यान दिया, जिससे बोडो समुदाय को और अलगाव महसूस हुआ।
असम आंदोलन के दौरान बोडो समुदाय ने अपनी राजनीतिक और सांस्कृतिक पहचान की सुरक्षा की मांग और जोर से उठाई।
1987 में, उपेन्द्र नाथ ब्रह्मा के नेतृत्व में ABSU ने ‘असम को पचास-पचास में बांटने’ की मांग की। अब यह आंदोलन केवल स्वायत्तता की मांग से ऊपर उठकर असम के विभाजन और एक अलग बोडोलैंड राज्य की मांग तक पहुंच चुका था।
12 जून 1987 को गुवाहाटी के जज मैदान में ‘असम को पचास-पचास में बांटो’ का नारा दिया गया।
बोडोलैंड सिक्योरिटी फोर्स (BdSF) का गठन हुआ, जिसने आंदोलन को हिंसक मोड़ दिया। इसके बाद के वर्षों में, असम में हिंसा और अराजकता का दौर शुरू हुआ।
1986 में BdSF के गठन के बाद, आंदोलन और अधिक उग्र हो गया।
1993 में बोडो आंदोलन का पहला महत्वपूर्ण समझौता हुआ। बोडोलैंड ऑटोनॉमस काउंसिल (BAC) का गठन किया गया, जिससे बोडो बहुल क्षेत्रों को सीमित स्वायत्तता मिली। लेकिन बोडो नेताओं को लगा कि यह केवल एक आंशिक जीत थी।
20 फरवरी 1993 को पहला बोडो अकॉर्ड साइन किया गया, लेकिन इसने बोडो समुदाय को पूरी तरह संतुष्ट नहीं किया।
1993 के बाद, असंतोष बढ़ता गया, और नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (NDFB) ने स्वतंत्र बोडोलैंड की मांग करते हुए सशस्त्र संघर्ष को और तेज कर दिया। 1994 से 2003 तक, यह संघर्ष और भी हिंसक हो गया, जिससे व्यापक सांप्रदायिक दंगे और विस्थापन हुआ।
1994-2003 के बीच NDFB के उग्रवाद ने असम में और अधिक हिंसा और अस्थिरता फैलाई।
2003 में दूसरा बोडो अकॉर्ड हुआ, जिसके तहत बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल (BTC) का गठन हुआ। इसमें चार प्रमुख जिले कोकराझार, बक्सा, चिरांग, और उदालगुरी को शामिल किया गया। इस बार बोडो समुदाय को अधिक स्वायत्तता दी गई, लेकिन यह अभी भी स्वतंत्र राज्य की मांग से कम था।
2003 में BTC का गठन बोडो समुदाय के लिए एक महत्वपूर्ण कदम था, लेकिन आंदोलन समाप्त नहीं हुआ।
BTC के गठन के बाद, NDFB में विभाजन हुआ। NDFB-P और अन्य धड़ों ने स्वतंत्र राज्य की मांग को जारी रखा, जिससे संगठन में आंतरिक विवाद भी बढ़ा।
2000 के दशक में NDFB में विभाजन के साथ-साथ आंदोलन की दिशा में भी परिवर्तन आया।
2012 और 2014 में बोडो और अन्य समुदायों के बीच हिंसक संघर्ष हुआ। इसमें सैकड़ों लोग मारे गए और हजारों विस्थापित हुए। यह संघर्ष असम के सामाजिक ताने-बाने को और जटिल बना गया।
2012 में हुए दंगों में सैकड़ों लोग मारे गए और करीब 5 लाख लोग विस्थापित हुए।
27 जनवरी, 2020 को, बोडो आंदोलन को एक और मोड़ मिला, जब सरकार और बोडो संगठनों के बीच तीसरा बोडो अकॉर्ड साइन किया गया। इस समझौते के तहत बोडोलैंड टेरिटोरियल रीजन (BTR)का गठन हुआ। इस बार, बोडो संगठनों के कई गुटों ने अपने हथियार डाल दिए, और उम्मीद जगी कि यह समझौता स्थायी शांति की ओर एक कदम होगा।
27 जनवरी 2020 को, तीसरा बोडो अकॉर्ड साइन किया गया, जिससे बोडोलैंड टेरिटोरियल रीजन (BTR) का गठन हुआ।
2020 का समझौता एक नई शुरुआत की उम्मीद लेकर आया। बोडो समुदाय के कुछ लोगों ने इसे स्वागत योग्य कदम माना, जबकि कुछ गुटों ने यह सवाल उठाया कि क्या यह समझौता उनकी स्वतंत्र राज्य की मांग को पूरी तरह से हल करेगा।
इस आंदोलन में बोडो महिलाओं की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता। उन्होंने न केवल विरोध प्रदर्शनों में भाग लिया, बल्कि सांस्कृतिक गतिविधियों और सामाजिक सुधार के प्रयासों का भी नेतृत्व किया। कई महिलाओं ने राजनीतिक संगठनों में भी अपनी जगह बनाई।
Bodo महिलाओं ने बोडो साहित्य सभा और ABSU के माध्यम से आंदोलन को सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर सशक्त बनाया।
बोडो आंदोलन के दशकों लंबे संघर्ष का सामाजिक और आर्थिक प्रभाव गहरा रहा है। हिंसा और अस्थिरता ने इस क्षेत्र में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को प्रभावित किया है। बोडोलैंड के ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की कमी और विकास की धीमी गति ने बोडो लोगों के लिए नई चुनौतियाँ पैदा कीं।
2012 और 2014 के संघर्षों के बाद विस्थापन और पुनर्वास के मुद्दों ने बोडोलैंड के सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित किया।
बोडो युवाओं की नई पीढ़ी अब न केवल अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही है, बल्कि वे असम और भारत के व्यापक समाज में अपनी जगह भी बना रहे हैं। उनके सपने अब राजनीतिक सीमाओं से परे हैं—वे शांति, विकास और आधुनिकता की ओर देख रहे हैं।
बोडो आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा उनकी सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा भी रहा है। बोडो नृत्य, गीत, और कला का प्रदर्शन इस बात का प्रतीक है कि कैसे एक समुदाय ने संघर्ष के बीच भी अपनी पहचान को संजोकर रखा। बोडो भाषा को सशक्त बनाने के लिए कई अभियान चलाए गए हैं।
बोडो साहित्य सभा और ABSU ने 1970-1980 के दशकों में बोडो भाषा को संरक्षित रखने के लिए कई सफल प्रयास किए।
बोडो आंदोलन की यह यात्रा, जिसने असम और भारत की राजनीति को गहराई से प्रभावित किया, अब एक नए मोड़ पर है। 2020 का समझौता और बोडोलैंड टेरिटोरियल रीजन (BTR) की स्थापना एक स्थायी शांति की उम्मीद देती है। लेकिन क्या यह आंदोलन समाप्त हो गया है, या इसके भविष्य में और भी अनुत्तरित सवाल हैं?”
बोडोलैंड आंदोलन की गाथा केवल राजनीतिक संघर्ष की नहीं, बल्कि एक समुदाय की पहचान, अधिकार, और भविष्य की लड़ाई थी ।
हम उम्मीद करते हैं कि भविष्य में बोडो समुदाय के अधिकारों का सम्मान और पालन किया जाएगा, ताकि उनके हक के अनुसार उन्हें न्याय मिल सके। यह न केवल असम बल्कि पूरे भारत के लिए सुख और समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करेगा।
भारत की विविधता में निहित इन छोटे-छोटे समुदायों की सांस्कृतिक धरोहर और योगदान ही इसे एक मजबूत राष्ट्र बनाते हैं। जब सभी समुदाय मिलकर एक बेहतर भविष्य के लिए काम करेंगे, तब ही भारत सही मायनों में आगे बढ़ेगा।धन्यवाद